शिष्य :
अवस्था अभी सुप्त है तो क्या, जागृति को उतारू है,
दिशा अंजान है , उल्टी अभी वायु है ।
पग दौड़ने को उतावले , रक्त में गजब का उफान है,
चित्त कुछ करने को लालायित है, अंतर्मन में उठा विचित्र सा तूफान है ।
रोके न रुक रहा , आई ये कैसी आंधी है ?
पथ पे हूँ अकेला खड़ा, दुनिया ने आस बाँधी है ।
मार्ग होता नहीं प्रतीत, है शून्य सा बना हुआ,
स्तिथि मनो हो खड्ग, रक्त से सना हुआ ।
कुछ शेष अब रहा नहीं, मन हो गया है जीर्ण-शीर्ण,
सुन ताने-बाने विश्व के, असह्य हो रहे ये कर्ण ।
गुरु :
हे तात ।।
तू धीर बन, गंभीर बन,
ले खड्ग और तू चीर मन ,
तू वश में विश्व बाँधेगा,
देख तेज तेरा जग कौंधेगा ।
सब घास है, तू खास है ,
तुझे अपने लक्ष्य की तलाश है ।
यही सोंच के तू पुलकित हो,
हो उठ खड़ा और जीवित हो ।
देख दृढ तेरा ! वायु भी अपना रुख मोड़ेगा,
तूफ़ान से उबरकर, तू सर्वत्र छाप छोड़ेगा ।
निशा का अँधेरा , खुद तुझसे घबराएगी
जब रवि की लालिमा, स्वयं पथ दिखलाएगी ।
ले लक्ष्य ह्रदय में , संकल्प मुठ्ठी में भींचे,
अग्रेषित हो निरंतर, नवचेतना को खींचे ।
जब होगी उड़न ऊँची, और बदल ही धूप ले लेंगे,
तब ताने-बाने विश्व के प्राशंषा रूप ले लेंगे ।
तेरा व्यथित होना व्यर्थ है
तू सर्व करने में समर्थ है ।
हाँ, हाँ, तुझमे विराट शक्ति है,
सत्य, बेमानी तेरी विरक्ति है ।
शिष्य:
दिग्भ्रमित हो मैं शोकाकुल था,
परिस्थिति से व्याकुल था ।
सद्मार्ग हमें दिखलाया है,
सत्य से अवगत कराया है ।
चेतना सुप्त थी, समर्थता गुप्त थी,
लगा दी अग्नि उसमे, अब आ गयी नव-जागृति ।
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